भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीढ़ियाँ ही सीढ़ियाँ हैं / यश मालवीय

Kavita Kosh से
गंगाराम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:02, 15 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यश मालवीय }} Category:गीत <Poem> एक भी कमरा नहीं है मगर सौ-...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक भी कमरा नहीं है
मगर सौ-सौ खिड़कियाँ हैं
छत नहीं, ऊँचाइयों तक
सीढ़ियाँ ही सीढ़ियाँ हैं
रोशनी ही पी गए
कुछ लोग रोश्नदान थे जो
आग ही अपनी नहीं
किस आग को पालो सहेजो?
जल रहे घर, बस्तियाँ ही
धुँए वाली चिमनियाँ हैं
पेड़-पत्ते चुप
कि सूनापन हवाओं में घुला है
ज़ेहन में बस
डबडबायी आँख वाला चुटकुला है
जिन्हें पढ़ने का नहीं साहस
कि ऎसी चिट्ठियाँ हैं
होंठ अपने हिल रहे हैं
बात पर अपनी नहीं है
दृश्य हैं ऎसे कि अपनी
आँख भी झपनी नहीं है
ज़िन्दगी के हर सफ़े पर
कुछ पुरानी ग़लतियाँ हैं