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सीढ़ियाँ ही सीढ़ियाँ हैं / यश मालवीय

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एक भी कमरा नहीं है
मगर सौ-सौ खिड़कियाँ हैं
छत नहीं, ऊँचाइयों तक
सीढ़ियाँ ही सीढ़ियाँ हैं
रोशनी ही पी गए
कुछ लोग रोशनदान थे जो
आग ही अपनी नहीं
किस आग को पालो सहेजो?
जल रहे घर, बस्तियाँ ही
धुँए वाली चिमनियाँ हैं
पेड़-पत्ते चुप
कि सूनापन हवाओं में घुला है
ज़ेहन में बस
डबडबायी आँख वाला चुटकुला है
जिन्हें पढ़ने का नहीं साहस
कि ऎसी चिट्ठियाँ हैं
होंठ अपने हिल रहे हैं
बात पर अपनी नहीं है
दृश्य हैं ऎसे कि अपनी
आँख भी झपनी नहीं है
ज़िन्दगी के हर सफ़े पर
कुछ पुरानी ग़लतियाँ हैं