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सुख की हार / दीप्ति गुप्ता

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ऐ सुख! मुझ पर, हँस मत इतना
मैंने दुख है, झेला कितना!
काश! कि तुझको मेरे दिल का
होता तनिक भी, दिल में ख्याल,
तो आकर मेरे, आँगन में
प्यार से लेता, मुझे सम्हाल;
पर तू दरवाजे, तक आता
दस्तक दे, गायब हो जाता!
मैंने क्या अपराध किया है?
या तेरा अपमान किया है?
जो तू मुझको, सता-सता कर,
मेरी क्षमता नाप रहा है!
मैं भी अब दुख,में जल-जल कर
तपते शोलों पे चल-चल कर
लपट दहकती, हो गई हूँ
निशि-दिन,सुलगा करती हूँ,
पर तेरी आस, न करती हूँ!