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"सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 11" के अवतरणों में अंतर

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बहुरि कही जेवनार  सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति ।
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बहुरि कही जेवनार  सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति।
बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति ।।112।।
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बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति।।112।।
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जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो मोहिं।
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सेा देख्यो परतच्छ ही,सपन न निसफल होहिं।।113।।
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बरनि कथा वहि विधि सबै, कह्ययो आपनो मोह।
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वृथा कृपानिधि भगत-हितु-चिदानन्द सन्दोह।।114।।
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साजे सब साज-,बाजि गज राजत हैं,
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विविध रूचिर रथ पालकी बहल है।
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रतनजटित सुभ सिंहासन बैठिबे को,
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चौक कामधेनु कल्पतरूहू लहलहैं।
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देखि देखि भूषण वसन-दासि दासन के,
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सुख पाकसासन के लागत सहल है।
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सम्पति सुदामा जू को कहाँ लौं दई है प्रभु,
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कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल है।।115।।
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अगनित गज वाजि रथ पालकी समाज,
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ब्रजराज महाराज राजन-समाज के।
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बानिक विविध बने मंदिर कनक सोहैं,
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मानिक जरे से मन मोहें देवतान के।
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हिरा लाल ललित झरोखन में झलकत,
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किमि किमि झूमर झुलत मुकतान के।
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जानी नहिं विपति सुदामा जू की कहाँ गई,
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देखिये विधान जदुराय के सुदान के।।116।।
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कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते,
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पौरि मनि मण्डित कलस कब धरते।
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रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को,
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कब ये खबास खरे मौपे चौंर ढरते।
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देखि राजसामा निज बामा सों सुदामा कह्यो,
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कब ये भण्डार मेरे रतनन भरते।
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जो पै पतिवरता न देती उपदेश तू तो,
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एती कृपा द्वारिकेस मो पैं कब करते।।117।।
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पहरि उठे अम्बर रूचिर सिंहासन पर आय।
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बैठे प्रभुता निरखि कै, सुर-पति रह्यो लजाई।।118।।
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कै वह टूटि.सि छानि हती कहाँए कंचन के सब धाम सुहावत।
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कै पग में पनही न हती कहँए लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
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भूमि कठोर पै रात कटै कहाँए कोमल सेज पै नींद न आवत।
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कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभुए के परताप तै दाख न भावत॥119।।
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बहुरि कही
 
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11:52, 14 फ़रवरी 2011 का अवतरण

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बहुरि कही जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति।
बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति।।112।।
 
 
जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो मोहिं।
सेा देख्यो परतच्छ ही,सपन न निसफल होहिं।।113।।
 
 
बरनि कथा वहि विधि सबै, कह्ययो आपनो मोह।
वृथा कृपानिधि भगत-हितु-चिदानन्द सन्दोह।।114।।
 
 
साजे सब साज-,बाजि गज राजत हैं,
विविध रूचिर रथ पालकी बहल है।
रतनजटित सुभ सिंहासन बैठिबे को,
चौक कामधेनु कल्पतरूहू लहलहैं।
देखि देखि भूषण वसन-दासि दासन के,
सुख पाकसासन के लागत सहल है।
सम्पति सुदामा जू को कहाँ लौं दई है प्रभु,
कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल है।।115।।
 
 
अगनित गज वाजि रथ पालकी समाज,
ब्रजराज महाराज राजन-समाज के।
बानिक विविध बने मंदिर कनक सोहैं,
मानिक जरे से मन मोहें देवतान के।
हिरा लाल ललित झरोखन में झलकत,
किमि किमि झूमर झुलत मुकतान के।
जानी नहिं विपति सुदामा जू की कहाँ गई,
देखिये विधान जदुराय के सुदान के।।116।।
 
 
कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते,
पौरि मनि मण्डित कलस कब धरते।
रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को,
कब ये खबास खरे मौपे चौंर ढरते।
देखि राजसामा निज बामा सों सुदामा कह्यो,
कब ये भण्डार मेरे रतनन भरते।
जो पै पतिवरता न देती उपदेश तू तो,
एती कृपा द्वारिकेस मो पैं कब करते।।117।।
 
 
पहरि उठे अम्बर रूचिर सिंहासन पर आय।
बैठे प्रभुता निरखि कै, सुर-पति रह्यो लजाई।।118।।
 
 
कै वह टूटि.सि छानि हती कहाँए कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँए लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँए कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभुए के परताप तै दाख न भावत॥119।।

बहुरि कही