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सुनो बादल / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

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सुनो बादल !
गर्जना सुनकर तुम्हारी
बच्चे अब रोते नहीं
हँस पड़ते हैं खिलखिलाकर
आतंकित नहीं होते बड़े
समेटते नहीं सामान
कि तुम बरसोगे
खुश होते हैं नाचकर
तुम जब छाते हो
बिजली की तड़क में उन्मादित होकर
पंछी भागते नहीं नीड़ में अपने
कलरव करते हैं भर आह्लादित स्वर
चींटे ढोते नहीं चिउरारी
मदमस्त होकर
परिवार के साथ आराम करते हैं
बतलाते हैं सब परिवार
अच्छा है कि
परिवेश में बची है इज्जत
तड़कना भड़काना छोड़कर
सीख लो मुस्कुराना
नहीं तो जानते हो?
मनुज हैं हम
आता है हमें सिखाना ॥