भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुबह का भुला / पद्मजा बाजपेयी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:21, 15 फ़रवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पद्मजा बाजपेयी |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिशाहीन मेरे देश के युवाओं,
तुमसे एक बात कहनी है,
यूँ छुप-छुप कर जीना,
कोई जीना नहीं होता,
अपनों से दूर, परायों में रहना,
कोई रहना नहीं होता,
चोरी, लूट, हत्या, बलात्कार,
अपराध कहलाते है,
इनसे पेट भरना,
भरना नहीं होता,
दूसरों को रुलाकर हँसना,
हँसना नहीं कहलाता,
माना कि सही राह पर हजार काँटे हैं,
कई उतार, चढ़ाव और घाटे हैं,
भर पेट रोटी नहीं मिलती,
तन ढँकने को बहू-बेटियाँ तरसती,
खुले आसमान के नीचे,
किस तरह से राते गुजारती।
मांगने पर काम नहीं मिलता,
काम मिलने पर दाम नहीं मिलता,
इधर कुआँ, उधर खाई है,
कहाँ जाए उनकी जान पर बन आई है,
हिम्मत से काम लो, कर्म ही भाग्य बनाता है,
रात के बाद अवश्य प्रभात आता है,
तुम लौट आओ,
सुबह का भुला,
शाम को भी लौट आए तो भुला नहीं कहलाता है।