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सुलगी-सुलगी-सी दुपहरिया / श्यामनन्दन किशोर

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सुलगी-सुलगी-सी दुपहरिया, बुझी-बुझी-सी शाम!
और धुँआती रात, प्रात का होगा क्या अंजाम!

गाहे-गाहे याद तुम्हारी आ जाती है, मीत!
अनचाहे भी गाना पड़ता, आह, तुम्हारा गीत!

मुझको देख उदास द्वार का खिला गुलमुहर कहता-
कवि तो मेरी तरह विहँसकर गीतों में है दहता!

जैसे-जैसे दिन है जलता, यह गुलमुहर निखरता चलता-
पीड़ाओं के दामन में ही देखो मेरा गीत मचलता!

अमलतास में झुमके लटके देख तुम्हें ही प्राण,
सहज लचीली डाल, तुम्हारा हो जाता है ध्यान!

गहन हल्दिया रंग तुम्हारा, अमलतास को कितना प्यारा-
खड़ा धूप में सँवरा-सँवरा करता किसे इशारा!

दुःख दर्दों के गलियारे में प्यारे बने अतीत-
वर्तमान के अँधियारे में तारे बने अतीत!

और रात की याद मालती उकसा देती है,
जब हँस उजली कली पवन का चुम्बन लेती है।

वही मालती हुई दिवस में लाल लाज के मारे-
जैसे कवि के व्रण कर देते गीतों को रतनारे!

क्या जाने क्यों लाज प्यार का साज छेड़ देती है-
नया जमाना, दुनिया बदली, मगर नहीं यह रीत!

नयी दुल्हन की चुनरी की अँचरी-सी तुम हँसती हो,
हरदम रहती पास, दूर चाहे जितनी बसती हो!

जब-जब पीड़ा मुझे डंक बेतरह चुभोती है,
लगता, आ चुपचाप सिरहाने कोई रोती है!

बहुत सुखों के बीच याद कुछ मेरी आती होगी,
लाशों को भी ढो लेती ज्यों गंगाधार पुनीत!

किसको इतना समय कि, पगले, घाव दिखाओगे तुम,
किसको इतना समय कि अपने गीत सुनाओगे तुम।

मुखड़ा को दुखड़ा का दर्पण मत बन जाने दो,
कटे हार की फसल सुहानी, बने याद जब जीत!

सपन पुराना खुले नयन में कभी-कभी आ जाता,
जैसे पुरवैया का झोंका आँचल को सरकाता!

दिवस-निशा का उजला-काला, समय-विहग दो पंखों वाला
जाने कहाँ उड़ा जाता है बिना रुके मतवाला!

जो है उसका कौन भरोसा, क्या भविष्य का लेखा-जोखा,
उमर सुहानी उतनी समझो जितनी जाये बीत!