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"सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे / शलभ श्रीराम सिंह" के अवतरणों में अंतर

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रचनाकाल : 1991
 
रचनाकाल : 1991
  
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'''शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।'''
 
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02:28, 11 दिसम्बर 2009 का अवतरण

सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
परछाइयों से नीद में लड़ते हुए लोग
जीवन से अपरिचित अपने से भागे
अपने जूतों की कीलें चमका कर संतुष्ट
संतुष्ट अपने झूठ की मार से
अपने सच से मुँह फेर कर पड़े
रोशनी को देखकर मूँद लेते हैं आँखें

सोते हुए लोगों के बीच जागना पड रहा है मुझे
ऋतुओं से डरते हैं, ये डरते हैं ताज़ा हवा के झोंकों से
बारिश का संगीत इन पर कोई असर नहीं डालता
पहाड़ों की ऊँचाई से बेख़बर
समन्दरों की गहराई से नावाकिफ़
रोटियों पर लिखे अपने नाम की इबारत नहीं पढ़ सकते
तलाश नहीं सकते ज़मीन का वह टुकड़ा जो इनका अपना है

सोये हुए लोगों के बीच जागना पड रहा है मुझे
इनकी भावना न चुरा ले जाए कोई
चुरा न ले जाए इनका चित्र
इनके विचारों की रखवाली करनी पड रही है मुझे
रखवाली करनी पड रही है इनके मान की
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड रहा है मुझे


रचनाकाल : 1991


शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।