भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे / शलभ श्रीराम सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
 
रोशनी को देखकर मूँद लेते हैं आँखें
 
रोशनी को देखकर मूँद लेते हैं आँखें
  
सोते हुए लोगों के बीच जागना पड रहा है मुझे
+
सोते हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
 
ऋतुओं से डरते हैं, ये डरते हैं ताज़ा हवा के झोंकों से
 
ऋतुओं से डरते हैं, ये डरते हैं ताज़ा हवा के झोंकों से
 
बारिश का संगीत इन पर कोई असर नहीं डालता
 
बारिश का संगीत इन पर कोई असर नहीं डालता
पंक्ति 21: पंक्ति 21:
 
तलाश नहीं सकते ज़मीन का वह टुकड़ा जो इनका अपना है
 
तलाश नहीं सकते ज़मीन का वह टुकड़ा जो इनका अपना है
  
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड रहा है मुझे
+
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
 
इनकी भावना न चुरा ले जाए कोई
 
इनकी भावना न चुरा ले जाए कोई
 
चुरा न ले जाए इनका चित्र
 
चुरा न ले जाए इनका चित्र
 
इनके विचारों की रखवाली करनी पड रही है मुझे
 
इनके विचारों की रखवाली करनी पड रही है मुझे
 
रखवाली करनी पड रही है इनके मान की
 
रखवाली करनी पड रही है इनके मान की
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड रहा है मुझे
+
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
  
  
पंक्ति 32: पंक्ति 32:
  
  
'''शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।'''
+
'''शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि [[कुँअर रवीन्द्र]] के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।'''
 
</poem>
 
</poem>

02:49, 18 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
परछाइयों से नीद में लड़ते हुए लोग
जीवन से अपरिचित अपने से भागे
अपने जूतों की कीलें चमका कर संतुष्ट
संतुष्ट अपने झूठ की मार से
अपने सच से मुँह फेर कर पड़े
रोशनी को देखकर मूँद लेते हैं आँखें

सोते हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
ऋतुओं से डरते हैं, ये डरते हैं ताज़ा हवा के झोंकों से
बारिश का संगीत इन पर कोई असर नहीं डालता
पहाड़ों की ऊँचाई से बेख़बर
समन्दरों की गहराई से नावाकिफ़
रोटियों पर लिखे अपने नाम की इबारत नहीं पढ़ सकते
तलाश नहीं सकते ज़मीन का वह टुकड़ा जो इनका अपना है

सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे
इनकी भावना न चुरा ले जाए कोई
चुरा न ले जाए इनका चित्र
इनके विचारों की रखवाली करनी पड रही है मुझे
रखवाली करनी पड रही है इनके मान की
सोये हुए लोगों के बीच जागना पड़ रहा है मुझे


रचनाकाल : 1991


शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।