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00:38, 14 नवम्बर 2007 के समय का अवतरण

मित्रों, मैंने साथ तुम्हारा जब छोड़ा था
तब मैं हारा थका नहीं था, लेकिन मेरा
तन भूखा था मन भूखा था। तुम ने टेरा,
उत्तर मैं ने दिया नहीं तुम को : घोड़ा था

तेज़ तुम्हारा, तुम्हें ले उड़ा। मैं पैदल था,
विश्वासी था ‘‘सौरज धीरज तेहि रथ चाका।’’
जिस से विजयश्री मिलती है और पताका
ऊँचे फहराती है। मुझ में जितना बल था

अपनी राह चला। आँखों में रहे निराला,
मानदंड मानव के तन के मन के, तो भी
पीस परिस्थितियों ने डाला। सोचा, जो भी
हो, करुणा के मंचित स्वर का शीतल पाला

मन को हरा नहीं करता है। पहले खाना
मिला करे तो कठिन नहीं है बात बनाना।