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स्वगत-1 / शशिप्रकाश

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कभी-कभी ऐसा होता है कि
तुम एकदम अकेले छोड़ दिए जाते हो
सोचने के कारण
या सोचने के लिए
कठिन और व्‍यस्‍त दिनों के ऐन बीचो-बीच ।
लपटों से उठते है बिम्‍ब
और फिर लपटों में ही समा जाते हैं ।
स्‍मृति-छायाएँ नाचती हैं निर्वसना
स्‍वप्‍नों के लिए नहीं खुलता
कहीं कोई दरवाज़ा ।
हवा एकदम भारी और उदास होती है ।
आत्‍मा का कोई हिस्‍सा
राख़ में बदलता रहता है ।
तुम्‍हारे रचे चरित्र चीख़ते हैं।
घटनाएँ-स्थितियाँ अपने विपरीत में
बदल जाती हैं ।
तमाम अनुबन्‍ध्‍ा
आग के हवाले कर दिए जाते हैं ।
प्रार्थनाएँ पास नहीं होतीं ।
पुनर्विचार याचिकाओं का
प्रावधान नहीं होता ।
मंच पर नीम उजाले में
एक के बाद एक उठते जाते हैं काले पर्दे
और गहराइयों से निकलकार सामने आती हैं
कभी तुम्‍हारी ग़लतियाँ
तो कभी ग़लतफ़हमियाँ ।
राख़ की एक ढेरी पर
चढ़ते जाते हो तुम हाँफते हुए
और घुटने-घुटने तक धँसते हुए
और फिर थककर बैठ जाते हो ।
लेकिन तुम्‍हारे आँसू चुप रहते हैं
और हथेलियाँ गर्म ।
हृदय धड़कता रहता है
और होंठ थरथराते हैं ।
आग अपने पीछे
एक काला रेगिस्‍तान छोड़
किस दिशा में आगे बढ़ गई है,
तुम जानते की कोशिश करते हो ।
सहसा तुम्‍हें लगता है
कोई आवाज़ आ रही है
उड़-उड़कर, रूक-रूक कर ।
शायद वायलिन पर कोई गहन विचार
और सघन उदासी भरी धुन है,
या फिर यह रात की अपनी आवाज़ है ।
फिर सन्‍नाटे में कहीं
गिटार झनझना उठता है
तबले की उन्‍मत्‍त थापों के साथ ।
किधर से आ रही है हवा
इन आवाज़ों को ढोती हुई,
तुम भाँपने की कोशिश करते हो ।
दरअसल जब तुम्‍हें लग रहा था
कि तुम कुछ नहीं सोच पा रहे थे,
तब फ़ैसलाकुन ढंग से
कोई नतीजा, या कोई नया विचार
तुम्‍हारे भीतर पक रहा था,
एक त्रासदी भरे कालखण्‍ड का
समाहार निष्‍कर्ष तक पहुँच रहा था
और कोई नई परियोजना
जन्‍म ले रही थी ।

( रचनाकाल : नवम्‍बर,1995)