भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"स्वप्न पट / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
 
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=ग्राम्यान / सुमित्रानंदन पंत
+
|संग्रह=ग्राम्या / सुमित्रानंदन पंत
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}

13:15, 13 अक्टूबर 2009 का अवतरण

स्वप्न पट !
ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
औ’ नगर न नगर जनाऽकर,
मानव कर से निखिल प्रकृति जग
संस्कृत सार्थक, सुंदर !

देश राष्ट्र वे नहीं,
जीर्ण जग पतझर आस समापन,
नील गगन है: हरित धरा:
नव युग: नव मानव जीवन !

आज मिट गए दैन्य दुःख,
सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
भावी स्वप्नों के पट पर
युग जीवन करता नर्तन !

डूब गए सब तर्क वाद,
सब देशों राष्ट्रों के रण;
डूब गया रव घोर क्रांति का,
शांत विश्व संघर्षण !

जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की
तोड़ भित्तियाँ दुर्धर
युग युग के बंदीगृह से
मानवता निकली बाहर !

नाच रहे रवि शशि,
दिगंत में-नाच रहे ग्रह उडुगण
नाच रहा भूगोल,
नाचते नर नारी हर्षित मन !

फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित
युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल
अयुत करों से लुटा रही
जन हित, जन बल, जन मंगल !

ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,
मुक्त दिशा औ’ क्षण से
जीवन की क्षुद्रता निखिल
मिट गई मनुज जीवन से !