भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
''' स्वस्थ धुओं का सुख '''
जब धुएं बीमार नहीं थे,उमरदराज़ लोग धुओं पर हीपलते थे,
दादी फुंकनी से चूल्हा सुलगाते हुए
धुओं से पेट भर लेती थी
गोइंठे-उपले के अलाव पर
पतीली में दाल चुराती हुई
धुओं का सोंधापन उसमें घोलती थी,
उसे यकीन था कि
धुओं की खुराक
इत्मिनान से बैठ
पाड़े की चक्की का आटा
सानती हुई,
बटुली में भात छोड़
बाहर घाम की आहट पर
फूटती कलियों को झाँक आकर ,
वह दोबारा फुंकनी सम्हालती थी
और चूल्हे में जान डाल
धुओं ने उसे भली-चंगी रखा
पचासी में भी ,
नज़र इतनी तेज कि
कहकहे लगाते हुए
गुहार आई थी
बैदजी आए,
नाड़ी थामे रहे
और दादी मुस्कराहटों के बीच
अपनी देह छोड़ गई.