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स्वाहा / मोना गुलाटी

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मैं नहीं चाहती किसी के लिज़लिज़े अधरों का स्पर्श
आदिम भूख की आग-हवस
अपना होम करना चाहती हूँ
अपने ही अग्नि-यज्ञ में मैं ।

एक अनिवर्चनीय तपिश में भस्म हो
मज्जा या रक्त या मांसपेशियाँ या हड्डियाँ या
मस्तिष्क की दरारें या कुण्ठाएँ ।
मैं नहीं गुज़रना चाहती सपाट मैदानों और
उफनते समन्दरों और छातियों और धड़ों से ।

स्वयं के लिए समेट लेना चाहती हूँ
अपना सब कुछ
अपने ही सम्भोग के लिए
आत्मरत होने के लिए
व्यक्त करने के लिए अपना आक्रोश
प्रकृति के प्रति
ईश्वर के प्रति
आदमी के प्रति
अपने प्रति ।

मैं क्यों नहीं हुई किसी अपशु-योनि में
जहाँ नहीं होती ऊब,
जहाँ नहीं होती सम्भोग-क्रियाएँ
या अटपटे प्रेमालाप
या मुझे होना चाहिए था
केंचुआ या टेपवर्म या
रात भर काँखता हुआ उल्लू ।