भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हंस-मानस की नर्तकी / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:47, 28 जुलाई 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शब्द-बद्ध
तुमको करने का
मैं दु:साहस नहीं करूँगा
तुमने
अपने अंगों से
जो गीत लिखा है-
विगलित लयमय,
नीरव स्वरमय
सरस रंगमय
छंद-गंधमय-
उसके आगे
मेरे शब्दों का संयोजन-
अर्थ-समर्थ बहुत होकर भी-
मेरी क्षमता की सीमा में-
एक नई कविता-सा केवल
जान पड़ेगा-
लय पवहीन,
रसरिक्त,
निचोड़ा,
सूखा, भेड़ा।

ओ माखन-सी
मानस हंसिनि,
गीत तुम्हारा
जब मैं फिर सुनाना चाहूँगा,
अपने चिर-परिचित शब्दों से
नहीं सहरा मैं मागूँगा।
कान रूँध लूँगा,
मुख अपना बंद करूँगा,
पलकों में पर लगा
समय-अवकाश पार कर
क्षीर-सरोवर तीर तुम्हारे
उतर पड़ूँगा,
तुम्हे निहारूँगा,
नयनों से
जल-मुक्ताहल तरल भड़ूँगा!