भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हकीक़तों से उलझता रहा फ़साना मेरा / शाहिद माहुली" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बशीर बद्र |संग्रह= शहर ख़ामोश है / शाहिद माहुली }} <…) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार= | + | |रचनाकार=शाहिद माहुली |
|संग्रह= शहर ख़ामोश है / शाहिद माहुली | |संग्रह= शहर ख़ामोश है / शाहिद माहुली | ||
}} | }} | ||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
समन्दरों में कभी तिश्नगी के सहरा में | समन्दरों में कभी तिश्नगी के सहरा में | ||
− | कहाँ-कहाँ न फिरा लेके आब | + | कहाँ-कहाँ न फिरा लेके आब-ओ-दाना मेरा |
तमाम शहर से लड़ता रहा मेरी ख़ातिर | तमाम शहर से लड़ता रहा मेरी ख़ातिर | ||
पंक्ति 18: | पंक्ति 18: | ||
वो और लोग थे जो मांग ले गए सब कुछ | वो और लोग थे जो मांग ले गए सब कुछ | ||
− | यहाँ तो शर्म थी दस्त ए तलब उठा न मेरा | + | यहाँ तो शर्म थी दस्त-ए-तलब उठा न मेरा |
मुझे तबाह किया इल्तिफ़ात ने उसके | मुझे तबाह किया इल्तिफ़ात ने उसके | ||
उसे भी आ न सका रास दोस्ताना मेरा | उसे भी आ न सका रास दोस्ताना मेरा | ||
− | किसे | + | किसे क़बूल करें और किसको ठुकराएँ |
इन्हीं सवालों में उलझा है ताना-बाना मेरा | इन्हीं सवालों में उलझा है ताना-बाना मेरा | ||
</poem> | </poem> |
07:56, 12 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
हकीक़तों से उलझता रहा फ़साना मेरा
गुज़र गया है मुझे रौंद के ज़माना मेरा
समन्दरों में कभी तिश्नगी के सहरा में
कहाँ-कहाँ न फिरा लेके आब-ओ-दाना मेरा
तमाम शहर से लड़ता रहा मेरी ख़ातिर
मगर उसी ने कभी हाल-ए-दिल सुना न मेरा
जो कुछ दिया भी तो महरूमियों का ज़हर दिया
वो सांप बन के छुपाये रहा खज़ाना मेरा
वो और लोग थे जो मांग ले गए सब कुछ
यहाँ तो शर्म थी दस्त-ए-तलब उठा न मेरा
मुझे तबाह किया इल्तिफ़ात ने उसके
उसे भी आ न सका रास दोस्ताना मेरा
किसे क़बूल करें और किसको ठुकराएँ
इन्हीं सवालों में उलझा है ताना-बाना मेरा