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हड्डियों की अकड़न / बाल गंगाधर 'बागी'

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किसी भी गुलामी में गर जीना उनका होता
इसमें फंसता जो, क्या हाल उसका होता?
दलितों के वजूद पे, सवर्णों का पहरा
ग़ज़ल में होता, क्या रंग उनका होता?

दलित बनाके नामो-निशा मिटाकार
उनमें कलम में ढलके बयान कैसे होता?
मेरे होठों की सुर्खी, गुलाब से बढ़कर
जाने वही गुजर, इधर से जिसका होता

भूख प्यास होठ कैसे, चाट के मिटाते हैं
नाक के तवे पे जब, रोटी कभी महकता है
लौटा कभी बाजार से, राहगीर देख करके
उम्मीद के आंखों से कई, थैलों में झांकता है

आवो चलो गुलिस्तां से, खुशबू देखता हूँ
जिसे लहू से सींचकर, अकसर पालता हूँ
कहीं न उसे तोड़ के, ले जाये गैर माली
जिसे अपनी कला का, तस्वीर मानता हूँ

आंख के झरने को, तुम पानी समझते हो
मैं उसे अपने दर्द की, संगीत मानता हूँ
एक एक दर्द का, सुर ताल बना करके
बगावत से विरह की, जंजीर काटता हूँ?