भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमको चुम्बन छू निकला / मनीषा शुक्ला
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:52, 25 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनीषा शुक्ला |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आज तुम्हारे दो नैनों का
हमको चुम्बन छू निकला
मन की देहरी को जैसे
भावों का आंगन छू निकला
आज नहीं आह्लाद है कोई, ना ही कोई उत्सव
बिना किसी त्यौहार भला क्यों गूँजे मन में कलरव
तन दमका कुंदन के जैसा
सांसे चंदन छू निकला
मिली भाग्य से हमको-तुमको इक जैसी रेखाएं
जन्म-जन्म में तुम्हे मिलें हम, तुमको ही हम पाएं
मिले हमें तुम, ज्यों प्राणों को
पूजन-तर्पण छू निकला
अनुष्ठान सी छुअन तुम्हारी, पत्थर भी हो पावन
देह छुई, साँसों को दे बैठे इक मधुर निवेदन
नभ की पीर लिए वसुधा को
कोई सावन छू निकला