भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारे शहर की स्त्रियाँ / अनूप सेठी

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:37, 23 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनूप सेठी }} एक साथ कई स्त्रियाँ बस में चढ़ती हैं ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक साथ कई स्त्रियाँ बस में चढ़ती हैं एक हाथ से सँतुलन बनाए एक हाथ में रुपए का सिक्का थामे बिना धक्का खाए काम पर पहुँचना है उन्हें।

दिन भर जुटे रहना है उन्हें टाइप मशीन पर, फाइलों में

साढ़े तीन पर रंजना सावंत ज़रा विचलित होंगी दफ्तर से तीस मील दूर सात साल का अशोक सावंत स्कूल से लौट रहा है गर्मी से लाल हुआ पड़ोसिन से चाबी लेकर घर में घुस जाएगा रँजना सावँत अँगुलियां चटकाकर घर से तीस मील दूर टाइप मशीन की खटपट में खो जाएँगी वे नहीं सुनेंगी सड़ियल बॉस की खटर-पटर।

मंजरी पंडित लौटते हुए वीटी पर लोकल में चढ़ नहीं पाएंगी धरती घूमेगी गश खाकर गिरेंगी लोग घेरेंगे दो मिनट कोई सिद्ध समाज सेविका पानी पिलाएगी मंजरी उठ खड़ी होंगी रक्त की कमी है छाती में ज़िंदगी जमी है सांस लेना है अकेली संतान होने का मां बाप को मोल देना है

एक साथ कई स्त्रियां बस में चढ़ती हैं एक हाथ से संतुलन बनाए छाती से सब्ज़ी का थैला सटाए बिना धक्का खाए घर पहुंचना है उन्हें

बंद घरों में बत्तियां जले रहने तक डटे रहना है अंधेरे में और सपने में खटना है नल के साथ जगना है हर जगह खुद को भरना है चल पड़ना है एक हाथ से संतुलन बनाए

रोज़ सुबह वीटी चर्चगेट पर ढेर गाड़ियां खाली होती हैं रोज़ शाम को वहीं से लद कर जाती हैं।

बहुत सारे पुरुष भी इन्हीं गाड़ियों से आते जाते हैं उपनगरों में जाकर सारे पुरुष दूसरी दुनिया में ओझल हो जाते हैं वे समय और सुविधा से सिक्के सब्ज़ियां और देहें देखते हैं सारी स्त्रियां किसी दूसरी ही दुनिया में रहती हैं किसी को भी नहीं दिखतीं स्त्रियाँ।

                                               (1991)

</poem>