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हमें उस पर विश्‍वास है / कुमार मुकुल

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जैसे सूरज मिलता है
अपनी किरणों के द्वारा
अंधकार में डूबी धरती से
उसके कण-कण को आलोकित करता
मिलते हैं हम भी
अपनी उजास से सींचते
एक-दूजे का वजूद

संध्‍याकाल
हवा की शांत स्निग्‍धता में डूबी
जैसे बहती है नदी
अपने ही भीतर
बहते हैं हम
एक-दूसरे के भीतर
बीच में स्‍फुट से उठते हैं शब्‍द
बुलबुलों से
पर नि:शब्‍दता
ज्‍यादा बजती है
शिराओं में ह‍मारी

बातों के वहां
कोई खास मानी नहीं होते
वे बस खुशी की लहरों को
सहारा देने के लिए
एक माध्‍यम बनाते हैं
नहीं
कहीं कोई रोमांच नहीं होता
स्निग्‍धता की एक लहर में उतराते
उससे बहराना नहीं चाहते हम

फिर समय आता है हमारे मध्‍य
अपनी तेज घंटियां बजाता
जिसे अनसुना करते
सुनते हैं हम
और रफ्ता-रफ्ता
छूटते जाते हैं
आपने आप से ही

हम क्‍या चाहते हैं
हमें पता नहीं होता
हमारी हथेलियां उलझती हैं
सुलझती हैं
और एक झटके से भागते हैं हम
विपरीत दिशा में
एक-दूसरे के पास आते हुए
जाते हुए

यहां ना दूरी है ना मजबूरी है
जैसे धरती आकाश हैं
दूर हैं कि पास हैं
कि यह जो सहजता है , सरलता है
स्निग्‍धता है उजास है
सतरंगी रसाभास है
हमें उस पर विश्‍वास है ...