भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हम तो सच कहने और सुनने के लिए कविता की तरफ़ आए थे / विनय सौरभ" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= ​विनय सौरभ​ |संग्रह= }} {{KKCatK avita}} <poem> ह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 35: पंक्ति 35:
 
या हमारे समाज का !
 
या हमारे समाज का !
  
जैसा की होना था  
+
जैसा कि होना था  
 
एक बेचैनी घेर कर खड़ी हो गई  हमें  
 
एक बेचैनी घेर कर खड़ी हो गई  हमें  
  

15:55, 5 अक्टूबर 2018 के समय का अवतरण

{{KKCatK avita}}


हमारे बारे में कहा गया.....
हमने एक ही तरह से कविताएं लिखीं
और जाने गए एक ही तरह से ....

जिसने कविता में गहरी उड़ान भर ली थी और जिसके झोले में कई बड़े पुरस्कार थे जिसे राजधानी एक बड़े अफसर नुमा कवि को सम्मानित और उसकी पहली किताब को विमोचित करने के वास्ते वातानुकूलित रेलगाड़ी से बुलाया गया था

अप्रत्याशित तामझाम के बीच कहा जिन्होंने :

दुख होता है
अभी हमारे साहित्य संसार में
एक ही तरह की कविताएं और एक ही तरह के दृश्य वहां

पीड़ा के गलियारे में बड़े कवि की आत्मा भटक रही थी
बुझते हुए स्वर में कहा उन्होंने आगे

गौरतलब है
एक ही तरह की चिड़ियाएं
एक ही तरह के फूल पहाड़
मां और बहनें भी एक ही तरह की
पिता भी आ रहे हैं कवियों के
एक ही तरह से
मतलब की कविताओं में यह एक-सा-पन !!

कुछ ऐसा असर था उस प्रसिद्ध कवि के कथन में कि हम समझ नहीं पाए यह संकट है संवेदना का
साहित्य का
या हमारे समाज का !

जैसा कि होना था
एक बेचैनी घेर कर खड़ी हो गई हमें

थोड़ी देर के मौन के बाद उन्होंने बताया रूमानी और भावुक होने की हद तक कि
बची है इस संकट से अभी विमोचित संग्रह की कविताएं !

बाहर हो रही तेज बारिश पर ध्यान केंद्रित कराते हुए सभागार का
संग्रह के बारे में कुछ और खुशगवार बातें की उस नामवर कवि ने

तो भीग गयीं आह्लाद से उस अफसर की कविताएँ और उनकी धर्मपत्नी

"जैसे आषाढ़ की पहली बारिश बांध लेती है हमारा मन
श्री ...... की कविताएं उसी बारिश में हरिप्रसाद चौरसिया की जैसे बांसुरी हैं !"

इस तरह से चीजों को रिलेट करके देखने की उनकी प्रतिभा और बुद्धि पर सनाका खा गई हमारी नई पीढ़ी

हम जानते थे
सम्मानित कवि की कविताओं में पहली बारिश का रूमान नहीं था
और उसमें हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी की मौजूदगी का आभास एक बड़ा बेशर्म झूठ था

वे हमारे शहर के एक बड़े अफसर की कविताएं थीं
वे कविताएं हमारे परिचय क्षेत्र में थीं
उनका सत्य जानते थे हम

इसलिए हम भाषा और अभिव्यक्ति के विस्मित कर देने वाले उस प्रायोजित चमत्कार के फेर में नहीं पड़े

लेकिन थोड़ी देर के लिए यह ख्याल तो आया ही कि
हम तो सच कहने और सुनने के लिए कविता की तरफ आए थे

और यही बेहतर होता
हरिओम राजोरिया,
प्रेमरंजन अनिमेष, रमेश ऋतंभर, कल्लोल चक्रवर्ती,भैया संजय कुमार कुंदन
​​

कि हम कोयले की मंडी में चले जाते
दिल्ली के चांदनी चौक पर बेचते कंघी और लड़कियों के माथे का रिबन
इसकी मिसाल दुनिया में नहीं है और कहीं बताते....

कहीं फुटपाथ पर छान लेते कोई फोटूग्राफी की दुकान
गले में रंगीन रूमाल लटकाए देह की दलाली में लग जाते

...............मगर इस तरफ
                नहीं आते !