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"हर किसी का दर्द/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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गूंजते अक्सर हवा में स्वर हंसी के,
 
गूंजते अक्सर हवा में स्वर हंसी के,
 
शर्म से जब झुक गया हो सर किसी का  
 
शर्म से जब झुक गया हो सर किसी का  
हो रहे अहसास लोगों की खुशी के,
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दूसरें के घर बचाने में जले खुद,
 
दूसरें के घर बचाने में जले खुद,
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उलझनों के जाल को जो काट डाले
 
उलझनों के जाल को जो काट डाले
 
हैं न कोई तम-विजेता सूर्य जैसा,
 
हैं न कोई तम-विजेता सूर्य जैसा,
पर्वतों केा काट लाये देवगंगा
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पर्वतों को काट लाये देवगंगा
 
आज दिखता है नहीं नरपुंज ऐसा,
 
आज दिखता है नहीं नरपुंज ऐसा,
  
जो बदल दे वक्त केा निज लेखनी से,
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जो बदल दे वक्त को निज लेखनी से,
 
आज कोई इस तरह लिखता नहीं है।
 
आज कोई इस तरह लिखता नहीं है।
 
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22:49, 5 मार्च 2012 के समय का अवतरण

हर किसी का दर्द

हर किसी का दर्द अपना दर्द समझे,
आज कोई इस तरह दिखता नहीं है।

देख करके दूसरों की वेदनाऐं,
गूंजते अक्सर हवा में स्वर हंसी के,
शर्म से जब झुक गया हो सर किसी का
हो रहे अहसास लोगों को खुशी के,
 
दूसरें के घर बचाने में जले खुद,
आदमी अब वह कहीं मिलता नहीं है।

बढ़ रहीं मन द्वेष की दुर्भावनाऐं
ज्यों नदी बरसात में उमड़े बहे,
हैं सिसकती नित्य प्रति सद्भावनाऐं
द्वेष के पदघात नित सर पर सहे,

विश्व के कल्याण हित विष पान कर ले,
आज साहस आदमी करता नहीं हैं।

उलझनों के जाल को जो काट डाले
हैं न कोई तम-विजेता सूर्य जैसा,
पर्वतों को काट लाये देवगंगा
आज दिखता है नहीं नरपुंज ऐसा,

जो बदल दे वक्त को निज लेखनी से,
आज कोई इस तरह लिखता नहीं है।