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हर प्रश्न उलझाते रहोगे कब तलक / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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हर प्रश्न उलझाते रहोगे कब तलक
तुम हमसे घबराते रहोगे कब तलक।
अफ़सोस हक़ की बात पर गर्दन झुका
महफ़िल में हकलाते रहोगे कब तलक।
मिलने न पाएं लोग आपस में गले
ये भीड़ उकसाते रहोगे कब तलक।
बस्ती को हरदम बरगलाने के लिए
झूठी क़सम खाते रहोगे कब तलक।
सुख चैन के पल क्यों नहीं भाते तुम्हें
यूँ आग दहकाते रहोगे कब तलक।
खुद आइने से मुंह चुराकर सच कहो
अपने को बहकाते रहोगे कब तलक।
जब सामने ख़ुर्शीद हो तब मोम को
तलवार चमकाते रहोगे कब तलक।
'विश्वास' ना-पुख्ता हवालों पर टिकी
तख़लीक़ छपवाते रहोगे कब तलक।