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हर रात घिरे जलना, हर एक दिवस तपना / ऋषभ देव शर्मा

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हर रात घिरे जलना, हर एक दिवस तपना
अंधियारे युद्धों में किरणों का मर खपना

शब्दों पर हथकड़ियाँ , होठों तालाबंदी
त्रासद अखबारों में सुर्खी बनकर छपना

आँखों में आँज दिया कुर्सी ने धुआँ धुआँ
जनने से पहले ही हर हुआ ज़िबह सपना

अब यहाँ क्रांति-फेरी लगने दो नगर-नगर
यह शांति-शांति माला बस और कहीं जपना

अब उठों जुनूनों से, ज़ुल्मों से जूझ पड़ो
ज्वाला में निखरेगा नचिकेता-मन अपना