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हाथों में किसी शै के हम सबका मुकद्दर है / ज़ाहिद अबरोल

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हाथों में किसी शै<ref>चीज़ ,वस्तु</ref> के, हम सब का मुक़द्दर<ref>भाग्य</ref> है
समझो तो वो आइनः, देखो तो वो पत्थर है

सदियों से हर इक दिल में, इक ख़्वाब-ए-मुनव्वर <ref>प्रकाशमय स्वप्न</ref> है
वो जिस्म का साया<ref>परछाई</ref> है, या साये का पैकर<ref>बदन,शरीर</ref> है

इक उम्र हुई हमने, देखा था किसी गुल<ref>फूल</ref> को
हर गोशः-ए-दिल<ref>दिल का हर कोना</ref> अब तक, ख़ुशबू से मुअत्तर<ref>सुगंधित</ref> है

गीतों के हसीं पैकर<ref>प्रतिमाएं</ref>, मुरझा नहीं पायेंगे
जब तक ग़म-ए-महबूबी<ref>प्रेयसी का दुःख</ref>, तख़ईल<ref>कल्पना</ref> का शहपर<ref>सबसे बड़ा पंख</ref> है
मुश्किल है समझ पाना, शाइर की तबीअत को
इक पल में वो सहरा है, इक पल में समुन्दर है

मानूंगा तुझे जब तू, कुछ कर के दिखायेगा
बातों में तो ऐ “ज़ाहिद”, हर शख़्स ‘सिकन्दर’ है

शब्दार्थ
<references/>