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"हार गए पिता / बोधिसत्व" के अवतरणों में अंतर

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पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
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वे हर मिलने वाले से कहते कि
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बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।
  
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वे ज़िंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती है
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किराने की दुकान पर।
  
पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे<br>
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उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
वे हर मिलने वाले से कहते कि<br>
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सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।<br><br>
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पर कुछ भी काम नहीं आया।
  
वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो<br>
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माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
किराने की दुकान पर।<br><br>
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मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
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सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
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ध्रुव तारे की तरह
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पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।
  
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सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की<br>
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जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
पर कुछ भी काम नहीं आया।<br><br>
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बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
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पूरी बाँह का स्वेटर
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उनके सिरहाने बैठ कर
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डालती रही स्वेटर
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में फंदा कि शायद
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स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
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भाई ने खरीदा था कंबल
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पर सब कुछ धरा रह गया
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घर पर ......
  
माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी<br>
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बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक<br>
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सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को<br>
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ध्रुव तारे की तरह<br>
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पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।<br><br>
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पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया<br>
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दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का<br>
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1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पूरी बाँह का स्वेटर<br>
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पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
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भाई ने खरीदा था कंबल<br>
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पर सब कुछ धरा रह गया<br>
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इच्छाएँ कई और थीं पिता की
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जो पूरी नहीं हुईं
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कई और सपने थे ....अधूरे....
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वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
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पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
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हार गए पिता
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पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे<br>
 
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं<br>
 
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक<br>
 
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'''रचना तिथि''' : 13 अक्टूबर 2007
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वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे<br>
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पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल<br>
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हार गए पिता<br>
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जीत गया काल ।<br><br><br>
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(रचना तिथि- 13 अक्टूबर 2007}br><br>
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01:12, 19 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।

वे ज़िंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती है
किराने की दुकान पर।

उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।

माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।

1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ......

बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।

पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।

इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।


रचना तिथि : 13 अक्टूबर 2007