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हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ / शहराम सर्मदी

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हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ
दिन ढले ही बैन करती हैं अजब रातें वहाँ

इक ग़ुरूब-ए-बे-निशाँ की सम्त रस्ते पर हूँ मैं
ख़ौफ़ ये दरपेश होंगी कैसी दुनियाएँ वहाँ

बार-हा देखी है उन कूचों ने शब-मस्ती मिरी
आज भी इक घर के बाम-ओ-दर शनासा हैं वहाँ

क्या तुझे मिस्मारी-ए-दिल की ख़बर कोई न थी
किस लिए भेजीं न तू ने फिर अबाबीलें वहाँ

एक दफ़अ तू यहाँ आ कर मुझे हैरान कर
क्या ज़रूरी है कि तुझ से मिलने आऊँ मैं वहाँ