भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हुड़क उठी दिन- रात है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

196
विधना ने क्या सोचके, खींची एक लकीर।
मैं व्याकुल इस पार हूँ, उधर तुम्हें भी पीर।
197
हुड़क उठी दिन- रात है , कैसे आऊँ पास।
चन्दा तुम हो दूर के, अम्बर में आवास।
198
साथ बने रहना सदा, हो कोई भी लोक।
मिट जाएँगे जो रहे, जनम- जनम के शोक।
199
मेरे ही उर में रहो,प्रियवर केवल आप।
इस जग में तेरे सिवा, मिली न मन की माप
200
निकले तेरे अंक में ,मेरी अंतिम साँस।
सुख -दुख में केवल तुम्हीं, रहना मेरे पास
201
सोच न पाया क्यों हुआ, मन मेरा बेचैन।
प्राण बसे कहीं और थे, ढूँढ रहा दिन रैन।
202
सात सुरों में जब बँधे , बनता है संगीत।
मन से मन जब -जब जुड़े, उमगे उर में प्रीत।
203
जग के नाटक में बनें , कुछ पल को किरदार।
रंगमंच पर झलक दे , ठहरे पल दो।चार।
204
जिनसे मन मिलता नहीं, वे मिल जाते रोज।
जो मन में हर पल बसे , उन्हें न पाते खोज।
205
धार भोथरी हो गई , मुझे लगे जो तीर।
मर्माहत करती सदा, मुझको तेरी पीर।
206
धड़कन -धड़कन तुम बसे, बन साँसों की साँस।
दूर कहाँ तुम जा सके, रहते हरदम पास।
207
जनम- जनम की साधना, करके सौ -सौ बार।
मिला हमें अनमोल है, तेरा सच्चा प्यार।
208
पीछे छूटे बहुत से , टूटे हैं अनुबन्ध।
और गहन पल पल- हुआ, तुझसे ही सम्बन्ध।
209
सातों जनम बना रहे, तेरा मेरा साथ।
जब तक साँसें थामना , कसकर मेरा हाथ।
210
घुटन भरी है जिंदगी, पल पल टूटीश्वास।
जीवन का सम्बल बने, बस तेरा विश्वास।
211
सभी अँधेरों से लड़े , छोटा-सा उजियार।
उस उजियारे में छुपा , तेरा सच्चा प्यार।
-0-