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हे गुरुवर! / रश्मि विभा त्रिपाठी

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मैं गीली माटी
हे गुरुवर!
तुमने दिया आकार
शिक्षा के साँचे में ढाला
और गढ़े सुन्दर संस्कार
मैं बियाबान के झुरमुट में
पड़ी हुई एक खोखल थी
पर वसंत की आशा
मुझमें अतिशय प्रबल थी
तुम कृष्ण से
कृपा दृष्टि पा
मैं खोखल से वेणु हुई
कंचन हो जाए निश्चय ही
गुरु- चरणों ने जो रेणु छुई
मुझे ज्ञान का पाठ पढ़ा
अतुलित साफल्य दिया है
कभी क्रोध कर बोध जगाया
औ कभी निरा वात्सल्य दिया है
मैं अबोध और महामूढ
अब हल करती हूँ जो प्रश्न गूढ
यह केवल तुम्हारा ही दिग्दर्शन है
तुम्हारी शिक्षा है तुम्हारा दिव्य दर्शन है
मैं कृतज्ञ हूँ जो अमूल्य ऋण तुमसे पाया है
गुरु दक्षिणा में शीश तुम्हारे चरणों में नवाया है।