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हे भले आदमियो ! / गोरख पाण्डेय
Kavita Kosh से
डबाडबा गई है तारों-भरी
शरद से पहले की यह
अँधेरी नम
रात ।
उतर रही है नींद
सपनों के पंख फैलाए
छोटे-मोटे ह्ज़ार दुखों से
जर्जर पंख फैलाए
उतर रही है नींद
हत्यारों के भी सिरहाने ।
हे भले आदमियो !
कब जागोगे
और हथियारों को
बेमतलब बना दोगे ?
हे भले आदमियो !
सपने भी सुखी और
आज़ाद होना चाहते हैं ।
(रचनाकाल : 1980)