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है छिपा सूरज कहाँ पर (नवगीत) / गरिमा सक्सेना

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ढूँढते हैं
है छिपा सूरज कहाँ पर

कबतलक, हम बरगदों की
छाँव में पलते रहेंगे
जुगनुओं को सूर्य कहकर
स्वयं को छलते रहेंगे

चेतते हैं
जड़ों की जकड़न छुड़ाकर

नीर का ठहराव जैसे
नीर को करता प्रदूषित
चुप्पियों से हो रहे हैं
ठीक वैसे स्वप्न शोषित

चीखते हैं
आइए संयम भुलाकर

नींद में बस ऊँघती हैं
सुखद क्षण की कल्पनाएँ
चाहतों को नित डरातीं
ध्येय-पथ पर वर्जनाएँ

तोड़ते हैं
स्वयं पर हावी हुआ डर