भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

होठों में ऐसी बात मैं दबा के चली आई / मजरूह सुल्तानपुरी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:12, 22 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मजरूह सुल्तानपुरी }} {{KKCatGeet}} <poem> होंठो...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

होंठों में ऐसी बात मैं दबाके चली आई
खुल जाये वोही बात तो दुहाई है दुहाई
हाँ रे हाँ, बात जिसमें, प्यार तो है, ज़हर भी है, हाय
होंठों में...

हो शालू...
रात काली नागन सी हुई है जवां
हाय दय्या किसको डँसेगा ये समा
जो देखूँ पीछे मुड़के
तो पग में पायल तड़पे
आगे चलूँ तो धड़कती है सारी अंगनाई
होंठों में...

हो शालू...
ऐसे मेरा ज्वाला सा तन लहराये
लट कहीं जाए घूँघट कहीं जाये
अरे अब झुमका टूटे
के मेरी बिंदिया छूटे
अब तो बनके क़यामत लेती हूँ अंगड़ाई
होंठों में...