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हो रहा आग़ाज़ है अंजाम होने को / हरिवंश प्रभात
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हो रहा आग़ाज़ है अंजाम होने को कहाँ,
चलती धरती-क़लमों को, विश्राम होने को कहाँ।
हादसे पहले भी होते थे, मगर मैं क्या करूँ,
चाँद निकला घर से है, बदनाम होने को कहाँ।
मौसमों पर जब उदासी छा गयी है हर तरफ़,
दिल लगी का अब कोई भी काम होने को कहाँ।
जी रहा जो शराफ़त में उसे अच्छा कहो,
उसके घर से अब अदावत आम होने को कहाँ।
पढ़ चुके हैं आज तक हम कितने चहरे की लकीर,
फिर भी बचाते कोई भी, बेनाम होने को कहाँ।
जुगनुओं आराम कर लो, तेरे दिन भी आएँगे,
जब तलक ‘प्रभात’ कायम, शाम होने को कहाँ।