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"1857 : सामान की तलाश / असद ज़ैदी" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=सामान की तलाश / असद ज़ैदी
 
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1857 की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
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आज बहुत पास की लड़ाइयां हैं
  
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ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
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हर गलती अपनी ही की हुई लगती है
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सुनायी दे जाते हैं ग़दर के नगाडे और
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एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल
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भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटेँ
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पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलकदमी
  
1857 की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं<br>
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हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
आज बहुत पास की लड़ाइयां हैं<br><br>
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व्यावसायिक सिनेमा का असर हो
  
ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब<br>
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पर यह उन 150 करोड़ रुपयों के शोर नहीं
हर गलती अपनी ही की हुई लगती है<br>
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जो भारत सरकार ने `आजादी की पहली लड़ाई' के
सुनायी दे जाते हैं ग़दर के नगाडे और<br>
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150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किये हैं
एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल<br>
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उस प्रधानमंत्री के कलम से जो आजादी की हर लड़ाई पर
भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटेँ<br>
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शर्मिंदा है और माफी मांगता है पूरी दुनिया में
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलकदमी<br><br>
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जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
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कुर्बान करने को तैयार है
  
हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और<br>
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यह उस सत्तावन की याद है जिसे
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो<br><br>
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पोंछ डाला है था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
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अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बन्किमों और अमीचंदों और हरिश्न्द्रों
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और उनके वंशजों ने
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जो खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे
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जिस सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
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मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, इश्वरचंद्रों, सय्यद अहमदों,
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प्रतापनारायणों, मैथिलिशरणों और रामचन्द्रों के मन में
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और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
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सत्तर अस्सी साल बाद सुभद्रा को ही आयी
  
पर यह उन 150 करोड़ रुपयों के शोर नहीं<br>
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यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जो भारत सरकार ने `आजादी की पहली लड़ाई' के<br>
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जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किये हैं<br>
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इस ज़मीन के किसान और बुनकर
उस प्रधानमंत्री के कलम से जो आजादी की हर लड़ाई पर<br>
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जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
शर्मिंदा है और माफी मांगता है पूरी दुनिया में<br>
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और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी<br>
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राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की खुराक बनते हुए
कुर्बान करने को तैयार है<br><br>
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विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
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सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ
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एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
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किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?
  
यह उस सत्तावन की याद है जिसे<br>
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1857 में मैला-कुचैलापन
पोंछ डाला है था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने<br>
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आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बन्किमों और अमीचंदों और हरिश्न्द्रों<br>
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आज वह भयंकर अपराध है
और उनके वंशजों ने<br>
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जो खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे<br>
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जिस सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था<br>
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मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, इश्वरचंद्रों, सय्यद अहमदों,<br>
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प्रतापनारायणों, मैथिलिशरणों और रामचन्द्रों के मन में<br>
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और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद<br>
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सत्तर अस्सी साल बाद सुभद्रा को ही आयी<br><br>
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यह उस सिलसिले की याद है जिसे<br>
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लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए<br>
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किसी और युग में किन्ही और हथियारों से
इस ज़मीन के किसान और बुनकर<br>
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कई दफे तो वे मिले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है<br>
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जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज्यादा मृत हैं
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और<br>
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पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की खुराक बनते हुए<br>
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या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नज़फगढ़ की तरफ जाता हूँ
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर<br>
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या ठिठककर पूछने लगते हैं बख्तावारपुर का रास्ता
सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ<br>
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1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह<br>
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कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?<br><br>
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और हम उनके लिए कैसे मरते थे
  
1857 में मैला-कुचैलापन<br>
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कुछ अपनी बताओ
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य<br>
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आज वह भयंकर अपराध है<br><br>
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लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए<br>
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क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
किसी और युग में किन्ही और हथियारों से<br>
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कई दफे तो वे मिले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से<br>
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जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज्यादा मृत हैं<br>
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पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम<br>
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या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नज़फगढ़ की तरफ जाता हूँ<br>
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या ठिठककर पूछने लगते हैं बख्तावारपुर का रास्ता<br>
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1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को<br>
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कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे<br>
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और हम उनके लिए कैसे मरते थे<br><br>
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कुछ अपनी बताओ<br><br>
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क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय<br>
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या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय।
 
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय।
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19:19, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

1857 की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयां हैं

ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर गलती अपनी ही की हुई लगती है
सुनायी दे जाते हैं ग़दर के नगाडे और
एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटेँ
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलकदमी

हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो

पर यह उन 150 करोड़ रुपयों के शोर नहीं
जो भारत सरकार ने `आजादी की पहली लड़ाई' के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किये हैं
उस प्रधानमंत्री के कलम से जो आजादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफी मांगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
कुर्बान करने को तैयार है

यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला है था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बन्किमों और अमीचंदों और हरिश्न्द्रों
और उनके वंशजों ने
जो खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, इश्वरचंद्रों, सय्यद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलिशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल बाद सुभद्रा को ही आयी

यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की खुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
सामूहिक कब्रों और मरघटों की तरफ
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?

1857 में मैला-कुचैलापन
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है

लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्ही और हथियारों से
कई दफे तो वे मिले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नज़फगढ़ की तरफ जाता हूँ
या ठिठककर पूछने लगते हैं बख्तावारपुर का रास्ता
1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे

कुछ अपनी बताओ

क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय।