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अजब दश्त-ए-हवस का सिलसिला है / प्रेम कुमार नज़र
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अजब दश्त-ए-हवस का सिलसिला है
बदन आवाज़ बन कर गूँजता है
कि वो दीवार ऊँची हो गई है
कि मेरा क़द ही छोटा हो गया है
गले तक भर गया अंधा कुआँ भी
मिरी आवाज़ पर कम बोलता है
मैं अपनी जामा-पोशी पर पशीमाँ
वो अपनी बे-लिबासी पर फ़िदा है
बदन पर चींटियाँ सी रेंगती हैं
ये कैसा खुरदुरा बिस्तर बिछा है
वो आँखें हो गईं तक़्सीम दो पर
जवाब अब और मुश्किल हो गया है
वो बहते पानियों पर नक़्श होगा
जो भीगी रेत पर लिक्खा हुआ है
पढ़ा था जो किताब-ए-ज़िंदगी से
वही लौह-ए-बदन पर लिख दिया है