भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अन्दर अन्दर बिखर रहे हैं लोग / राज़िक़ अंसारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:30, 18 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem> अन्दर अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्दर अन्दर बिखर रहे हैं लोग
आदतन बन संवर रहे हैं लोग

ख़ौफ़ रस्तों पे इतना बिखरा है
एक दूजे से डर रहे हैं लोग

मेरे घर के दिए बुझाने को
कान आंधी के भर रहे लोग

हद मे रहने की क्या क़सम खाई
अपनी हद से गुज़र रहे हैं लोग

बात इधर की उधर लगाने में
कुछ इधर कुछ उधर रहे हैं लोग

एक उंचे मुक़ाम की ख़ातिर
कितना नीचे उतर रहे हैं लोग