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अन्धेरों का समय है / जय चक्रवर्ती

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पाँव रखिएगा सँभलकर
ये —
अँधेरों का समय है ।

फन निकाले हर दिशा में
एक डर
फुँफकारता है
आदमी का आदमीपन ही
यहां
अब हारता है

नज़र रखिएगा चतुर्दिक
ये —
लुटेरों का समय है ।

साज़िशें पहने हुए हैं
देह पर
शुभकामनाएँ
मछलियाँ तालाब की
कैसे
बचाएँ अस्मिताएँ

क्या पता ! फाँसें किसे कब
ये —
मछेरों का समय है ।

अट्ठहासों से भरे स्वर
चीरते
प्रति पल चमन को
क़ैद में रखा गया है
सूर्य की
उजली किरन को

हर शज़र पर उल्लुओं के
अशुभ —
डेरों का समय है ।