भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने अपने कान बंधक रख दो,ऑंखें फोड़ लो / रमेश 'कँवल'

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:29, 8 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश 'कँवल' |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhaz...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने अपने कान बंधकर रख लो, आंखें फोड़ लो
वक़्त के बेरहम मौसम से ही नाता जोड़ लो

अपने होठों पर सजा लो बर्फ़ की गहरीत हें
देश हित की भावना की धूप से मुंह मोड़ लो

इन दिनों जब बेचते फिरते है सब अपना ज़मीर1
तुम भी बेशर्मी के आगे हाथ अपने जोड़ लो

टहनियों के दर्द से आगाह2 होना है फि़ज़ूल3
अधखिली कलियां दमकते फूल फ़ौरन तोड़ लो

जिस्म की खुशबू सुगंधित आत्मायें ले उड़ीं
उड़ते गिध अब तुम भी जि़ंदा शव से रिश्ता जोड़ लो


1. अन्तरात्मा 2. अवगत 3. व्यर्थ।