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अरबात का सहन / बुलात अकुदझ़ावा / सोनू सैनी

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गुज़र रहे हैं मौसम मेरे गीतों की तरह ।
निहार तो रहा ही हूँ तेरे संसार को मैं
तंग बहुत है यहाँ सहन में जगह
रुख़सत लिए जा रहा हूँ यहाँ से मैं ।

न ही ये दौलत न कुछ मान
सफ़र में मेरे मैं चाहता हूँ,
बस अरबात का ये तंग सहन
समेट लिए जाना चाहता हूँ ।

सफ़र की वो छोटी पोटली
कोने में रखा वो एक थैला,
पीर की तरह ताकता वो सहन
है मेरी तरह बिन दाग न मैला ।

कभी सख्त़ तो कभी नर्म हूँ मैं,
और क्या चाहिए ज़िन्दगी में
कुछ भी तो नहीं.
बस आँगन की इन गर्म दीवारों
पर हाथ तो सेंक ही लूँगा ।

1959
मूल रूसी से अनुवाद : सोनू सैनी

लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
               Булат Окуджава
              Арбатский дворик

…А годы проходят, как песни.
Иначе на мир я гляжу.
Во дворике этом мне тесно,
и я из него ухожу.

Ни почестей и ни богатства
для дальних дорог не прошу,
но маленький дворик арбатский
с собой уношу, уношу.

В мешке вещевом и заплечном
лежит в уголке небольшой,
не слывший, как я, безупречным
тот двор с человечьей душой.

Сильнее я с ним и добрее.
Что нужно еще? Ничего.
Я руки озябшие грею
о теплые камни его.

1959 г.