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आगत वसन्तक प्रति दू टा प्रेम कविता / राजकमल चौधरी

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1
कतेक राति बितला पर मुदा इजोरिया उगानसँ कतेक पहिने
एकटा रसिक स्त्री हमरासँ अनचिन्हारि
हमरा हृदय कारी अन्हारमें पियासल पाखी जकाँ अपस्याँत,
ताकि रहल अछि पानि
हमरासँ अनचिन्हारि एकटा रसिक स्त्री कारी अन्हार मे
ताकि रहल अछि।
पानि कतहु नहि अछि, एहि वसन्तपूर्वक मरूभूमिमे नहि अछि
पानि
केवल एकटा ठुट्ठ भयाओन गाछ।
गाछमे कहियो डारि-पात-फल-फूल-मंजरिक उत्सव छल
गाछमे कहियो
निश्चय छल वसन्तक सिनेह आ उत्तेजना...।
एहि मरूभूमिक तृतीय सत्य ईहो थिक
जे एहिठाम सदिखन अतीत
कोनो एहने भविष्यमे स्थापित होइत अछि,
जेना काल नहि हो वर्तमान !
एहि वसन्तपूर्वक मरूभूमिमे आगि अछि
आन किछु रहबाक नहि अछि, प्रयोजन
प्रयोजन नहि अछि वर्तमान निश्चयमे अतीत
भविष्य अनिश्चयमे फल प्राप्ति
निर्मूलक अर्थात् मूल-हीनक संभव नहि,
संभव नहि, संभव नहि,
संभव नहि, आगत बसन्तक
प्रतीक्षा।
ओ रसिक स्त्री अथच ओ पियासल पाखी अपस्याँत रहति
एहि कारी अन्हारमे।