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आज उस बज़्म में यूँ दाद-ए-वफ़ा दी जाए / 'शकील' ग्वालिअरी

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आज उस बज़्म में यूँ दाद-ए-वफ़ा दी जाए
ऐ ग़म-ए-इश्‍क तिरी उम्र बढ़ा दी जाए

मौसम-ए-ख़ंदा-ए-गुल है तो ज़बाँ बंद रक्खें
बात अपनी भी हँसी में न उड़ा दी जाए

इश्‍वा-ए-नाज़-ओ-अदा जौर ओ जफ़ा मक़ ओ दग़ा
कैसे जी लें जो रह इक बात भुला दी जाए

उस के ग़म ही से है हर दर्द का रिश्‍ता अब तक
दिल पे जब चोट लगे उस को दुआ दी जाए

जुर्म-ए-अहबाब की पुर्सिश भी मुझी से है ‘शकील’
मुझ को मेरे ही क़ुसूरों की सज़ा दी जाए