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आत्मसंवाद / राखी सिंह

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क्या सच में इतना मुश्किल था?

सड़क पर किसी पिल्ले को लगी चोट से द्रवित होने वाला मन
देता रहा चोट किस तरह स्वयं को
दूर देश की किसी घटना से व्यथित हो उठने वाले हृदय ने
अपने ही प्रति कैसे बरती इतनी निष्ठुरता
कहीं से आती धमाकों की आवाज़ से दहल उठने वाली छाती के कानो ने
कैसे सहा होगा दिल के चूर होने की चीत्कार

मैं, जिसे एक हरे पत्ते का पीला पड़ जाना भर देता हो उदासी से
अपनी गुलाबी मुस्कुराहटों का पीलापन
स्वीकार था सहर्ष ही?

चुटकी भर बारिश में तर
मुट्ठी भर बादल पर सवार
उड़ने वाली कामनाओं ने क्योंकर
अपने ही पंजो नोच डाला
अपना आकाश
झिर्रियों के अवसर तलाशती अस्तित्व
को चुभने लगी हवाएँ क्यों

क्या इतना दुष्कर था साथ हमारा
कि रख ली हमने दूरियों की भभकती चिंगारी
तुमने बायीं जेब मे
मैने कपड़े के भीतर, सीने के पास

क्या इतना मुक्कमल था रूठे रहना
क्या इतना मुश्किल था हमारा मना लेनायथ

तुम कह दो एक बार
तुम कहोगे तो मैं मान लूंगी
कि ये मेरे और तुम्हारे बनाये बहाने नही
ये सचमुच इतना ही मुश्किल था!