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आदिवासी / निर्देश निधि

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आदि सारी सभ्यताओं का
कितने मनमंथरों से कौन जाने
कल तक कालजयी-सी
कन्दराओं को सँजोता, सहेजता
जैसे हों शिव अविनाशी
आदिवासी
खुद की पीठ में घुंपी
नवेली सभ्यताओं की खुपरियों की
गहन पीड़ा लिए तड़पता
जीवट का विश्वासी
आदिवासी
मुंह बाए जंगल भकोसती
विकासवती सुरसा का सताया
बेचारा, अविलासी
अकूत संपदा पर बैठा प्रहरी बन
बालक-सा निश्चल सरल
निःस्प्रह, सात्विक, संत-सा
निर्धन का भी दाहिना
चंद टुकड़ों का अभिलाषी
आदिवासी
लेनिन, माओ की
गरम लाल मौहारों से दागा हुआ
सरकारी घात घुली समीरण में घुटता
सहन और सब्र के अनंत क्षितिज पर थिर खड़ा
लिए आँखों में अंतहीन उदासी
आदिवासी
लिपि हीन भाषाओं की बाँचता पाती
जबसे मुझे छू गया जीवन उसका
समा गई है मुझमे भी
अबूझ-सी आदिवासियत चुपके से
बन गई मैं भी कुछ–कुछ
उसकी-सी अनभिलाषी
आदिवासी।