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आवाज एक पुल है / कुमार सुरेश

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अनेक बार
चाहते हुए भी
मैं सहमत नहीं हो पIता
उस से

मंतव्य अपने
समझा भी नहीं पता
एक शून्य फैल जाता है
बीच में

तब
उससे करता हूँ उम्मीद
कि वह मरम्मत करे
दरकते हुए पुल की
आवाज़ दे मुझे
क्योंकि आवाज़ एक पुल है

पर किसी रहस्यमयी
ठण्ड की वजह से
जो हमारे भीतर कहीं
गहराई में बसती है
आवाज़ तब बर्फ़ हो जाती है
जब महकना चाहिए उसे
कॉफ़ी की ख़ुशबू की तरह

संवादहीनता के ठण्डे स्पर्श से
अपनापन तिड़कने लगता है
काँच की तरह

तब
ध्रुवों से सर्द बियावान
अकेलेपन से घबराकर
मैं
असहमति को
उसकी विशिष्टता
मान लेने को
सहमत हो जाता हूँ।