भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ईश्वर की मृत्यु / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:20, 22 अक्टूबर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=अरघान / त्रिलोचन }}...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मृत्यु हो चुकी है ईश्वर की, नया आदमी
अब इच्छानुसार करता है काम । क्या रहा
जो उस ने न किया हो । कोई भी कहीं कमी
नहीं रही है । ठाठ-बाट का महल है ढहा

सामंती युग का । स्वाभाविक मौत न पाई
ईश्वर ने; पूँजीपतियों ने, सामंतों ने,
उसे मार डाला उस की खा गए कमाई,
देश-देश में जो संचित थी । विषदंतों ने,

पूँजीवादी साँप के, ज़हर को फ़ैलाया
वह समाज के रग-रग में हड़कंप मचाता
हुआ आज भी काम कर रहा है, बन पाया
नहीं किसी से कुछ; रोगी कराहता जाता

अमृत समाजवाद का विष को काट सकेगा,
युग-युग के गम्भीर नरक को पाट सकेगा ।