भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उत्तर दोगे? / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
Dhirendra Asthana (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:32, 4 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


नहीं, प्रतिद्वंदिता नहीं!
सहज रूप से प्यार करती हूँ तुम्हें!
आदर भी तुम्हारी क्षमताओं का, सामर्थ्य का!
आकाश जैसे छाये कई रूप-
पिता, भाई, पति, पुत्र, मित्र,
अभिभूत करते हैं.
जीवन के हिस्सेदार सब,
स्वीकार करती हूँ .


पर पुरुष मात्र होते हो-
जब इनमें से कुछ नहीं
व्यक्ति मात्र, संबंधहीन,
तुम्हारी कौतुक भरी तकन
नापती-तोलती, असहज करती नारी-तन .
नर का चोला खिसका
झाँकने लगता पशु,
क्या पता कब हो जाओ
भूखे, आतुर, दुर्दांन्त,
रौंदने को तत्पर!
विश्वास नहीं करती,
मैं घृणा करती हूँ तुमसे!


एक बात और-
अपना कह, सब कुछ अर्पण कर
धन्यता मानी थी! .
पर क्या ठिकाना तुम्हारा,
घबरा कर, ऊब कर,
आत्म-कल्याण-हित,
परमार्थ खोजने चल दो,
कीचड़ में छोड़,
भुगतने को अकेली.
खुद का किया धरा मुझ पर लाद
कायर असमर्थ, दुर्बल तुम!


क्यों, कल्याण के मार्ग
मेरे लिये रुद्ध हैं?
अगर हैं,
तो तुमने रूँधे हैं,
कि संसार
अबाध चलता रहे!


क्या कभी तुम्हें
बीच मँझधार छोड़,
अपने लिये भागी मैं ?
उत्तर दोगे ?