भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उपजाये तो क्या उपजायें-एक / ओम नागर
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:50, 7 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम नागर |संग्रह= }} {{KKCatRajasthaniRachna}} {{KKCatKavita...' के साथ नया पन्ना बनाया)
उपजायें तो क्या उपजायें
कि खेत से खलिहान होती हुई
फसल
पहुंच सके घर के बंडों तक
मंडियों में पूरे दाम तुलें
अनाज के ढेर।
उपजायें तो क्या उपजायें
कि साहूकार की तिजोरी से
निकालकर
घरवाली के हाथ थमा सके
कड़कड़ाट
नोटों की गड्डियां।
उपजायें तो क्या उपजायें
कि इस बरस बाद
कभी न लेना पड़े
साल दर साल
बैंक से नोड्यूज।
सफेद-काले खाद के लिए
घंटो पंक्तिबद्ध होकर
न करना पड़े
अपनी बारी का इंतजार।