भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक क़लम पर सौ खंजर हैं / अनामिका सिंह 'अना'
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:46, 21 मई 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनामिका सिंह 'अना' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
इसको रोए उसको रोए
बोल भला किस-किस को रोए
एक क़लम पर सौ खंजर हैं ।
सच के सुआ बेधती कीलें,
घात लगाए वहशी चीलें ।
धन कुबेर के कासे ख़ाली
मसले कलियों को ख़ुद माली ।
गुलशन सारा धुआँ-धुआँ है
बदहवास सारे मंज़र हैं ।
रेहन पर हैं सत्ताधारी,
कुटिल नीतियाँ हैं दोधारी,
भाषण लच्छेदार सुनाएँ,
हर अवसर पर विष टपकाएँ,
विध्वंसों की भू उर्वर है
सद्भावी चिन्तन बंजर हैं ।
लोकतंत्र में लोक रुआँसा,
खल वजीर ने फेंका पाँसा,
लिखी दमन की चण्ट कहानी,
सकते में है चूनर धानी,
धन्नामल हैं रंगमहल में
सड़कों पर अंजर-पंजर हैं ।