भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक पागल भीड़ के हिंसक स्वरों के बीच / जहीर कुरैशी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:22, 9 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जहीर कुरैशी |संग्रह=चांदनी का दु:ख / जहीर कुरैशी }...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज




एक पागल भीड़ के हिंसक स्वरों के बीच
फँस गया है काँच का घर पत्थरों के बीच

दिन दिहाड़े रेप, हत्या, रहजनी , डाके
हादसा है जिन्दगी इन मंजरों के बीच

है बहुत मशहूर बन्दर-बाँट रोटी की
आप कैसे फँस गए इन बन्दरों के बीच !

हाँ सियासत रोज ही पंछी उड़ाती है
किन्तु रख देती है टाइम-बम परों के बीच

लोग कपड़े की तरह बुनने लगे गज़लें
क्योंकि गजलें आ फँसी हैं बुनकरों के बीच