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कठोर सच / मनीष मूंदड़ा

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मृत्यु दुरूख देयी है
है परंतु एक कठोर सच यह
कोई बात करना नहीं चाहता इस पर
होती सारी बातें हैं जीवन पर
कई लोग पूरी जि़ंदगी जी नहीं पाते
मगर
तुम, मैं, हम सब
कोई भी नहीं बच पाएँगे
एक दिन सब, कभी ना कभी, मृत्यु को पाएँगे
पूछो उसे, जिसने मृत्यु को देखा हैं
किसी अपने को साँस छोड़ते देखा हैं
कैसे मर जाते हैं सारे सपने
जब हमेशा को छोड़ जाते हैं हमारे अपने
वो अकेलेपन से सनी रातें
वो सन्नाटों में गूँजती उनकी बची-कूची आवाजें
वो बस शून्य में सब विसर्जित हो जाना
और फिर कभी ना लौट के आने का दर्द
पूछो उसे, समझो उनसे

उनके बिना, नए सुबह को जीना
रातों को रोना
रह रह के पुराने ख्यालों में खोना
कैसे सब कुछ ठीक होगा?